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भारत के इस राज्य में मिला 60 करोड़ साल पुराना खजाना, पहाड़ों में प्राचीन समुद्री रहस्य ने वैज्ञानिकों को भी चौंका दिया

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दुनिया के सबसे पुराने स्थलीय स्ट्रोमेटोलाइट्स के अवशेष हिमाचल प्रदेश के सोलन में पाए जाने का दावा किया गया है। ये अवशेष गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज हैं। इसकी खोज टेथिस जीवाश्म संग्रहालय के संस्थापक डॉ. रितेश आर्य द्वारा निर्मित। उनका दावा है कि ये जीवाश्म 600 मिलियन वर्ष से भी अधिक पुराने हैं, जो पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत की कहानी बताते हैं।

ये अवशेष चंबाघाट के पास जोलाजोरन गांव में पाए गए। डॉ. आर्य ने कहा कि स्ट्रोमेटोलाइट्स समुद्र की उथली सतह पर सूक्ष्मजीवी चादरों से बनी परतदार चट्टानें हैं। इससे पता चलता है कि सोलन क्षेत्र कभी टेथिस सागर का समुद्रतल था। यह महासागर कभी गोंडवाना (जिसमें भारत, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका और अंटार्कटिका शामिल थे) और एशिया के बीच था।

डॉ. आर्य ने कहा कि जब पृथ्वी की हवा में ऑक्सीजन नहीं थी और ग्रीनहाउस गैसें प्रचलित थीं, तब इन सूक्ष्मजीवों ने लगभग 2 अरब वर्षों में धीरे-धीरे ऑक्सीजन का उत्पादन करना शुरू किया, जिससे जीवन संभव हुआ। यदि स्ट्रोमेटोलाइट्स न होते तो आज ऑक्सीजन भी न होती। डॉ. आर्य इससे पहले इन्हें हरियाणा के कोटी, धर्मपुरी, सोलन, चित्रकूट और मोरनी हिल्स में ढूंढ चुके हैं। उनका कहना है कि चंबाघाट के अवशेषों में एक अलग प्रकार की स्तरीकृत संरचना दिखती है, जो एक अलग प्राचीन पर्यावरणीय स्थिति का संकेत देती है। उन्होंने कहा कि हिमाचल की धरती में लाखों वर्षों का समुद्री इतिहास छिपा हुआ है। हमें इसे संरक्षित करना होगा और भावी पीढ़ियों को सौंपना होगा।

वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं संरक्षित करने योग्य

ओएनजीसी के पूर्व महाप्रबंधक डॉ. जगमोहन सिंह ने कहा कि चंभाघाट के ये स्ट्रोमेटोलाइट हमें उस युग में ले जाते हैं जब पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत ही हुई थी। पंजाब विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष एवं वरिष्ठ भूविज्ञानी प्रो. (डॉ.) अरुण दीप आहलूवालिया ने कहा कि ये अवशेष न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि इन्हें संरक्षित करने लायक भी हैं।

जीवाश्म विरासत स्थल घोषित करने की मांग

डॉ. आर्य ने कहा कि वे उपायुक्त एवं पर्यटन अधिकारी को पत्र लिखकर मांग करेंगे कि इस स्थल को राज्य का जीवाश्म धरोहर स्थल घोषित किया जाए। उनका मानना है कि इससे विज्ञान, संरक्षण और भू-पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा।

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