नई दिल्ली: अमेरिका, जो खुद को पूरी दुनिया का 'चौधरी' समझता है, एक बार फिर भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव को अपने फायदे का सौदा बनाने में जुट गया है। डोनाल्ड ट्रंप, जो खुद 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' का नारा बुलंद करते नहीं थकते, भारत के आतंकवाद के खिलाफ कड़े रुख पर उंगली उठाने और जबरन मध्यस्थता का ढोंग रचने में लगे हैं। भारत ने साफ कहा है कि उसने पाकिस्तान के साथ हालिया संघर्षविराम अपनी शर्तों पर किया, लेकिन ट्रंप क्रेडिट लूटने में लगे हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने दावा किया कि भारत और पाकिस्तान को व्यापार रोकने की धमकी देकर उन्होंने यह समझौता करवाया। यह वही अमेरिका है, जो 9/11 के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान के एबटाबाद में घुसकर मार गिराया था, लेकिन जब भारत आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करता है, तो उसे 'संयम' की नसीहत देता है। आखिर ट्रंप भारत-पाक मामले में चौधरी क्यों बन रहे हैं? आतंकवाद पर अमेरिका की दोगली नीतिअमेरिका का इतिहास आतंकवाद के खिलाफ आक्रामक कार्रवाइयों से भरा पड़ा है। 2011 में, अमेरिका ने बिना पाकिस्तान को भनक लगने दिए ओसामा बिन लादेन को उसके घर में ढेर कर दिया। उस वक्त अमेरिका ने न तो पाकिस्तान की संप्रभुता की परवाह की और न ही किसी की इजाजत मांगी। फिर 2020 में, अमेरिका ने ईरान के शीर्ष सैन्य कमांडर कासिम सुलेमानी को बगदाद में ड्रोन हमले में मार गिराया। तब भी ट्रंप ने दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए कहा कि यह अमेरिका की सुरक्षा के लिए जरूरी था। लेकिन जब भारत आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाता है, जैसे कि 2019 में बालाकोट एयरस्ट्राइक या हालिया पहलगाम हमले के बाद ऑपरेशन सिंदूर, तो अमेरिका 'संयम' और 'शांति' का राग अलापने लगता है। आखिर यह दोगलापन क्यों? ट्रंप की धमकी और क्रेडिट की भूखहाल ही में, ट्रंप ने दावा किया कि उनकी मध्यस्थता और भारत-पाकिस्तान के साथ व्यापार रोकने की धमकी के चलते दोनों देश संघर्षविराम पर राजी हुए। यह बयान भारत की संप्रभु विदेश नीति पर सीधा हमला है। भारत ने बार-बार कहा है कि कश्मीर और पाकिस्तान के साथ उसका विवाद द्विपक्षीय मसला है, जिसमें किसी तीसरे पक्ष की जरूरत नहीं। फिर भी, ट्रंप ने न केवल मध्यस्थता का ढोंग रचा, बल्कि कश्मीर को 'हजार साल पुराना विवाद' बताकर भारत की स्थिति को कमजोर करने की कोशिश की। 2019 में, जब ट्रंप ने दावा किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे कश्मीर पर मध्यस्थता के लिए कहा था, तो भारत ने तत्काल इसका खंडन किया। भारत का कड़ा रुख, फिर भी अमेरिका की हस्तक्षेप की हिमाकतभारत ने पहलगाम हमले के बाद साफ कर दिया था कि वह आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति पर चल रहा है। ऑपरेशन सिंदूर और पाकिस्तान के खिलाफ भारत के कड़े तेवरों ने दुनिया को बता दिया कि भारत अपनी शर्तों पर फैसले लेता है। भारत ने यह भी स्पष्ट किया कि संघर्षविराम उसकी शर्तों पर हुआ, न कि किसी बाहरी दबाव में। फिर भी, ट्रंप और उनके विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने इसे अपनी 'कूटनीतिक जीत' बताने की कोशिश की। यह वही अमेरिका है, जो पाकिस्तान को एफ-16 के रखरखाव के लिए 40 करोड़ डॉलर की मदद देता है, लेकिन भारत की चार कंपनियों पर प्रतिबंध लगाता है। आर्थिक हितों का खेलट्रंप की इस दखलंदाजी के पीछे आर्थिक हित भी छिपे हैं। भारत एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति है, और अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार है। दोनों देश 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को 500 बिलियन डॉलर तक ले जा सकते हैं। दूसरी ओर, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त है, और वह अमेरिका के लिए रणनीतिक रूप से कम महत्वपूर्ण हो चुका है। फिर भी, अमेरिका भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलने की कोशिश करता है, ताकि दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बनाए रख सके। वैश्विक मंच पर वाहवाही है ट्रंप की मंशाट्रंप की यह हरकत उनकी पुरानी आदत का हिस्सा है। वह विश्व मंच पर खुद को 'महान नेता' साबित करने के लिए किसी भी मौके को नहीं छोड़ते। चाहे वह तालिबान के साथ दोहा समझौता हो, जिसने अफगानिस्तान को अराजकता में धकेल दिया, या फिर ईरान के साथ परमाणु समझौते को तोड़ने का एकतरफा फैसला, ट्रंप हमेशा सुर्खियां बटोरने की फिराक में रहते हैं। भारत-पाक तनाव में उनकी दखलंदाजी भी इसी स्क्रिप्ट का हिस्सा है। भारत ने बार-बार दोहराया है कि वह आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में किसी बाहरी हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं करेगा। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के आतंकवाद से संबंधों को उजागर करने के लिए नए सबूत पेश करने की योजना बनाई है। भारत का रुख साफ है: आतंकवाद के खिलाफ उसकी कार्रवाई उसकी संप्रभुता का हिस्सा है, और किसी की 'चौधरीगिरी' की कोई जगह नहीं।
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