चीन का अपराध यह है कि वह अगले कुछ वर्षों में, शायद 2035 तक ही दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। अगर बीते 15 साल की औसत वृद्धि देखें तो उस गति से इसकी जीडीपी अमेरिका से अधिक हो जाएगी।
अमेरिका को यही मंजूर नहीं है क्योंकि पिछली सदी से ही वह दुनिया पर वर्चस्व बनाकर वैश्विक शक्ति बना हुआ है। और उसे यह शक्ति अधिकांशत: अपनी अर्थव्यवस्था के दम पर ही मिली है, जो शायद आने वाले समय में हमारी आंखों के सामने ही पहले पायदान से खिसककर दूसरे नंबर पर आ जाने वाली है। चीन का यही कुसूर है और यही कारण है कि राष्ट्रपति ट्रंप चीन पर टैरिफ के बाण छोड़ रहे हैं।
जिसे 'पश्चिम' कहा जाता है, जिसका मतलब है यूरोप और उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और इज़राइल में इसके उपनिवेशों में शायद ही कोई ऐसा इलाका हो जहां इसका शासन न रहा हो और बाकी हम इससे शासित न हुए हों। इसी तरह जिसे 'अंतर्राष्ट्रीय नियम-आधारित व्यवस्था' कहते हैं, वह ऐसा तरीका है जिसमें उपनिवेशवाद और उसके रूपों के माध्यम से प्रत्यक्ष शासन को बदलकर अब उसकी जगह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं ने ले ली है। जी-7 जैसे अनौपचारिक समूहों का इस्तेमाल कर आपस में तय कदम उठाए जा रहे हैं।
18वीं सदी में चीन और भारत दो बड़ी आर्थिक शक्तियां होती थीं। यह वह दौर था जब दुनिया का अधिकतर काम बिना मशीनों के होता था और राष्ट्रीय उत्पादकता और उससे मिलने वाला आउटपुट आबादियों पर निर्भर था। अधिकांशलोग खेती से जुड़े हुए थे। औद्योगिक क्रांति ने ये सब बदल दिया और उत्पादकता ने मानव श्रम से खुद को एक तरह से अलग कर लिया। इस तकनीकी बदलाव में 18वीं सदी से वर्तमान समय तक पश्चिम ही अग्रणी रहा। चीन ने जल्द ही कदमताल मिला दी, और जल्द ही वह आगे भी निकल जाएगा। सिटीग्रुप ने 2023 में ‘कब चीन की जीडीपी अमेरिका से आगे निकलेगी? और इसका क्या अर्थ होगा?’ शीर्षक से एक पेपर प्रकाशित किया है। इस पेपर को यहां खत्म किया गया है:
‘विभिन्न पैमानों पर 2030 के दशक में ही (चीन) पास आ जाएगा, और शायद मध्य दशक तक ऐसा हो जाए।’
और जब अंतत: ऐसा होगा, तो प्रेस में इसकी चर्चा होगी ही और शायद राजनीतिक विमर्श भी इसी पर केंद्रित हो। यह मोटे तौर पर प्रतीकात्मक हो सकता है, लेकिन इससे भू-राजनीतिक ताकत और प्रतिष्ठा दोनों ही मिलेगी। मसलन, किसी अर्थव्यवस्था का समग्र आकार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के कोटा फॉर्मूले में शामिल होगा और वोटिंग में अधिकारों को निर्धारित करने में मदद करता है।
इसके साथ ही ओलंपिक टीमें, अंतरिक्ष कार्यक्रम और (सबसे महत्वपूर्ण) सेना आदि जैसी गतिविधियों जो ष्ट्रीय स्तर पर वित्त पोषित हैं, तो एक बड़ी अर्थव्यवस्था का मतलब है इनके लिए संसाधनों में बढ़ोत्तरी। इनमें से हर मोर्चे पर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था प्रभाव, ताकत और अन्य फायदे हासिल कर सकती है।
इनमें से अधिकांश तो हो ही चुका है। चीन की नौसेना के पास अमेरिकी नौसेना से ज्यादा जहाज हैं। चीन स्वतंत्र रूप से अंतरिक्ष स्टेशन बनाकर उसका परिचालन कर रहा है जो अमेरिका और रूस की अगुवाई वाले अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन को टक्कर दे रहा है। चीन ने (हॉन्गकॉन्ग सहित) पिछले साल हुए पेरिस ओलंपिक में 42 गोल्ड मेडल जीते जबकि अमेरिका के हिस्से में 40 स्वर्ण ही आए। सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने से पहले ही चीन ने बीते दशक में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव जैसे सबसे बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट शुरु किए हैं, और यह 120 देशों के साथ व्यापारिक साझेदारी वाला प्रोजेक्ट है, जबकि अमेरिका के सबसे बड़े प्रोजेक्ट में 70 देशों की साझेदारी है।
सिटीग्रुप की आंतरिक रिपोर्ट्स के कुछ संस्करण तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा, ट्रंप के पहले कार्यकाल और फिर जो बाइडन के सामने आ चुके हैं। इसके जवाब में उनकी प्रतिक्रिया फिलहाल यही रही है कि किसी तरह चीन को पंगु बनाया जाए, उसे ताइवान में बनने वाले और अमेरिका में डिजायन हुए सेमीकंडक्टर चिप न दिए जाएं। मकसद था कि अमेरिका आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाए रखे। कुछ लोग इसे उसी तरह देखते हैं जैसे कि बिजली के अविष्कार ने बदलाव किया था।
लेकिन यह प्रतिक्रिया नाकाम साबित हुई और एक अत्याधुनिक एआई डीपसीक सामने आया जिसने चीन की क्षमता को दुनिया के सामने रखा। और रोचक बात रही कि चीन ने डीपसीक को ओपन-सोर्स ही रखा, यानी इसे मुफ्त कर दिया, जिसने इस क्षेत्र में अमेरिका की मोनोपोली (एकछत्र राज) को चुनौती दे दी।
पश्चिम ने चीन की कंपनी हुएवी को 2019 में प्रतिबंधित कर दिया थआ और बाजार और हार्डवेयर तक उसकी पहुंच बंद कर दी थी, लेकिन चीन ने मैन्यूफैक्चरिंग पर ध्यान केंद्रित किया और अनुमानत: सेमीकंडक्टर के क्षेत्र में वह इसके शीर्ष निर्माताओं ताइवान की टीएसएमसी और डच फर्म एसएसएमएल से कुछ साल ही पीछे है। सिर्फ औद्योगिक डिजायन और मैन्यूफैक्चरिंग की बाक है, ये वे दो मोर्चे हैं जिनमें चीन खुद को बेहतर ही साबित किया है। ऐसे में वह जल्द ही बराबरी पर खड़ा हो तो ताज्जुब नहीं।
ताजा मामला टैरिफ वॉर का है जिसके जरिए पश्चिम चीन को अपनी अर्थव्यवस्थाओं से अलग रखना चाहता है और शायद यह आखिरी कदम है पूर्व को रोकने के लिए। और अगर यह भी नाकाम हो गया, तो फिर सिर्फ सैन्य शक्ति इस्तेमाल करने का ही विकल्प बचेगा, वैसे वॉशिंगटन में कुछ लोग इन दिनों ऐसी बातें कर भी रहे हैं।
टैरिफ को बेतुके 145 फीसदी तक बढ़ाए जाने के बाद चीन के जहाज अमेरिकी बंदरगाहों से लौटाए जा रहे हैं। दो सप्ताह से भी कम समय में, , 2 मई को, चीन से 800 डॉलर कीमत से कम के पैकेजों को दी जाने वाली ड्यूटी फ्री छूट समाप्त हो जाएगी। तब जब व्यापार ठप्प हो जाएगा, चीन से आने वाले कुछ मध्यवर्ती और तैयार माल का असर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में महसूस किया जाएगा।
हां, चीन को भी इससे नुकसान होगा, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं: अमेरिका को चीन का निर्यात उसके सकल घरेलू उत्पाद का 2 फीसदी है। ज्यादा नुकसान अमेरिका को होगा। सेज लॉ ऑफ मार्केट का नियम हमें बताता है कि सप्लाई अपनी मांग खुद बनाती है। इसका मतलब यह है कि एक अर्थव्यवस्था जो माल के उत्पादन पर केंद्रित है, उसे अंततः बिक्री के लिए कुछ बाजार मिल ही जाएंगे, जिसमें एक आंतरिक बाजार भी शामिल है क्योंकि माल का उत्पादन करने वाले श्रमिक उन्हें खरीद सकते हैं।
वह चीन है, जो दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक और एकमात्र मैन्यूफैक्चरिंग पॉवर है। अमेरिका एक उपभोक्ता है। अब उसके सामने वह कठिन कार्य है जो वह उपभोग करना चाहता है, और ऐसा करने में उसे आर्थिक पीड़ा और अनिश्चितता से गुजरना पड़ेगा, क्योंकि वह किसी और को नंबर एक के रूप में नहीं देख सकता।
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