देशभर में बिजली क्षेत्र को लेकर बड़े सुधारों की दिशा में केंद्र सरकार के नए प्रस्तावों के बाद पंजाब में मुफ्त बिजली योजना पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। विशेष रूप से पंजाब की आम आदमी पार्टी (AAP) सरकार द्वारा घरेलू उपभोक्ताओं और किसानों को दी जा रही मुफ्त बिजली योजना इस समय चर्चा के केंद्र में है। केंद्र ने अब इस व्यवस्था को लेकर सख्त रुख अपनाते हुए ऐसे राज्यों को तीन विकल्पों वाला प्रस्ताव सौंपा है जो बिजली सब्सिडी का भुगतान समय पर नहीं कर पा रहे हैं।
पंजाब में फिलहाल किसानों को ट्यूबवेल चलाने के लिए पूरी तरह मुफ्त बिजली दी जाती है, वहीं शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में घरेलू उपभोक्ताओं को हर महीने 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली का लाभ मिल रहा है। यह व्यवस्था राज्य सरकार पर सालाना भारी आर्थिक बोझ डाल रही है। एक अनुमान के अनुसार, जहां वर्ष 1997–98 में कृषि सब्सिडी का आंकड़ा 600 करोड़ रुपये से थोड़ा अधिक था, वहीं अब यह राशि बढ़कर लगभग 10,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है। यदि अन्य उपभोक्ता वर्गों को दी जा रही सब्सिडी को भी जोड़ लें तो कुल सब्सिडी राशि 20,500 करोड़ रुपये से अधिक हो चुकी है।
केंद्र सरकार की नजर में यह मॉडल दीर्घकालिक रूप से टिकाऊ नहीं है, और इसी को ध्यान में रखते हुए उसने एक स्पष्ट संदेश देते हुए तीन वैकल्पिक प्रस्ताव राज्यों के समक्ष रखे हैं। ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के प्रवक्ता वीके गुप्ता के अनुसार, पहला विकल्प यह है कि राज्य सरकारें अपनी बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम्स) की 51 प्रतिशत हिस्सेदारी निजी कंपनियों को बेच दें और उन्हें पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मॉडल पर चलाया जाए। दूसरा विकल्प है कि राज्य 26 प्रतिशत हिस्सेदारी और प्रबंधन का नियंत्रण किसी निजी कंपनी को सौंपे। तीसरे और अंतिम विकल्प के तहत राज्यों से कहा गया है कि यदि वे निजीकरण से बचना चाहते हैं, तो अपनी डिस्कॉम्स को भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) के साथ पंजीकृत कर स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध करें।
पंजाब के किसान संगठनों और ट्रेड यूनियनों ने इस प्रस्ताव का तीव्र विरोध किया है। किसानों का कहना है कि यह मुफ्त बिजली पर आधारित कृषि मॉडल को ध्वस्त करने की कोशिश है, जो पहले ही आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों से जूझ रहा है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया है कि केंद्र द्वारा प्रस्तावित बिजली संशोधन विधेयक-2025, दरअसल आम जनता को मिलने वाली सुविधाओं को छीनकर निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने का माध्यम बन सकता है।
संविधान के अनुसार, बिजली एक समवर्ती सूची का विषय है, यानी केंद्र और राज्य दोनों इस पर नीति बना सकते हैं। ऐसे में विशेषज्ञों का सवाल है कि यदि केवल सात राज्यों की सहमति ली गई है, तो क्या पूरे देश में निजीकरण जैसे अहम फैसले को थोपा जा सकता है?
इस बीच, यह तथ्य भी सामने आया है कि वर्तमान में देश की 60 से अधिक डिस्कॉम्स में से 16 पहले से ही निजी कंपनियों द्वारा संचालित की जा रही हैं। गुजरात, दिल्ली, मुंबई, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, और दादरा एवं नगर हवेली जैसे कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में निजीकरण पहले ही लागू हो चुका है।
ऐसे में पंजाब के सामने चुनौती स्पष्ट है — या तो वह अपनी मुफ्त बिजली योजनाओं की लागत को वहन करने की व्यवस्था करे, या केंद्र द्वारा सुझाए गए निजीकरण मॉडल को अपनाए। आने वाले दिनों में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि मान सरकार इस मुद्दे को किस दिशा में ले जाती है, क्योंकि यह न केवल पंजाब की अर्थव्यवस्था, बल्कि राजनीतिक भविष्य पर भी असर डाल सकता है।
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