CJI बीआर गवई ने तंज कसते हुए कहा, “जा के अपने भगवान से प्रार्थना करो।” लोग सवाल उठा रहे हैं कि अगर प्रार्थना ही जवाब है, तो अदालतें क्यों?
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (16 सितंबर 2025) को खजुराहो, मध्य प्रदेश के जावरी मंदिर में भगवान विष्णु की सात फुट लंबी कटी हुई मूर्ति को बहाल करने की एक याचिका खारिज कर दी।
ये मूर्ति यूनेस्को द्वारा संरक्षित खजुराहो के स्मारकों का हिस्सा है, जो सदियों पहले मुगल आक्रमणों के दौरान सिर कटवाकर अपवित्र और अपमानित छोड़ दी गई थी।
याचिकाकर्ता एक भक्त राकेश दालाल ने तर्क दिया कि मूर्ति को ठीक करना सिर्फ़ पुरातत्व की बात नहीं, बल्कि आस्था, सम्मान और हिंदुओं का बुनियादी अधिकार है कि वो अपनी पूर्ण देवताओं की पूजा कर सकें। सीनियर एडवोकेट संजय एम नुली के माध्यम से पेश हुए उन्होंने कोर्ट से कहा कि पुरातत्व सर्वेक्षण ऑफ इंडिया (एएसआई) और संबंधित अधिकारियों को निर्देश दें कि मूर्ति की मरम्मत करें और मंदिर की पवित्रता को फिर से स्थापित करें।
याचिका में खजुराहो मंदिरों की विरासत का ज़िक्र किया गया, जो चंद्रवंशी राजाओं के समय बने थे। ब्रिटिश काल की उदासीनता के बाद आज़ादी के 70 साल से ज़्यादा बीतने के बावजूद लापरवाही ने मूर्ति को उपेक्षित छोड़ दिया है।
दालाल ने आगे कहा कि सरकार का लगातार बहाली का काम न करने से भक्तों के पूजा के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन हो रहा है। उन्होंने बताया कि कई विरोध प्रदर्शन, ज्ञापन और जन अभियान होने के बावजूद राज्य से कोई जवाब नहीं आया।
इस पर सीजेआई की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच जो कुछ कहा, वो हैरान करने वाला था। क्योंकि उसमें कानूनी तर्क की जगह हिंदुओं को लेकर तंज था। सीजेआई ने याचिकाकर्ता से, “ये पूरी तरह से पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन है। जा के खुद देवता से कहो कि अब कुछ करे। तुम कहते हो कि भगवान विष्णु के कट्टर भक्त हो। तो जा के अब प्रार्थना करो।”
हिंदुओं के लिए ये टिप्पणी मुगल तलवारों से लगाए गए सदियों पुराने घाव से कहीं ज़्यादा गहरी चुभ गई। ये एक पुरानी ताना की गूँज थी, “अगर तुम्हारे देवता असली हैं, तो खुद को क्यों नहीं बचाया?” इस हिंदूफोबिक तंज का इस्तेमाल सदियों से इस्लामी शासकों और आधुनिक धर्मनिरपेक्ष एलीट्स करते हैं और उसका इस्तेमाल कर खुद सीजेआई ने उसका समर्थन कर दिया।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता की असमानता
एक पल के लिए कल्पना कीजिए, अगर यही टिप्पणी मुसलमानों पर कही जाती। मान लीजिए वक्फ (संशोधन) एक्ट की सुनवाई के दौरान सीजेआई गवई ने याचिकाकर्ताओं से कहा होता, “अगर ये कानून पसंद नहीं, तो जा के अल्लाह से मदद माँगो। दुआ करो, शायद वो तुम्हारी ज़मीनें बहाल कर दें।” इसके बाद तो पूरे देश में बवाल हो जाता। कानूनी भाईचारे वाले बयान जारी करते, टीवी एंकर चिल्लाते ‘न्यायिक इस्लामोफोबिया’, एनजीओ वाले संयुक्त राष्ट्र को चिट्ठियाँ भेजते और चीफ जस्टिस को कट्टरपंथी करार दे दिया जाता।
लेकिन जब यही तिरस्कार हिंदुओं के लिए रिज़र्व होता है, तो प्रतिक्रिया की जगह सिर्फ चुप्पी होती है। कोई वकील काउंसिल बयान नहीं देता। सड़कों पर कोई प्रदर्शन नहीं होता। कोर्ट में कोई याचिका नहीं दाखिल होती। दरअसल, भारत में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ़ एक तरफ़ा चलती है। यहाँ हिंदुओं का मज़ाक उड़ाया जाता है। उनका अपमान किया जाता है और बेधड़क तंज कसे जाते हैं। वहीं, अल्पसंख्यकों के किसी गलफहमी की वजह से हुए अपमान को भी अस्तित्व का संकट बनाकर प्रचारित किया जाता है।
जब हम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले पाखंड की बात कर रहे हैं, तो ये ज़िक्र करना ज़रूरी है कि सीजेआई गवई हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच का हिस्सा थे जिसने वक्फ संशोधन एक्ट, 2025 की कुछ धाराओं पर रोक लगा दी। खास उस प्रावधान पर, जिसमें विवाद सुलझने तक कब्ज़ा वाली सरकारी ज़मीन ‘वक्फ’ नहीं मानी जा सकती, जबकि यही असल में कब्ज़े और अतिक्रमण को बढ़ावा देता है।
सड़क का हिंसा Vs कोर्ट रूम
ये असमानता एक कड़वी हकीकत से उपजी है- अल्पसंख्यक अपनी संवेदनशीलताओं को सड़कों पर थोपते हैं, हिंदू न्याय के लिए अदालतों का रुख़ करते हैं।
जब मुसलमान अपमानित महसूस करते हैं, तो वो ‘सड़क वीटो’ का इस्तेमाल करते हैं। वो प्रदर्शन करते हैं, सड़कें जाम करते हैं और ‘सर तन से जुदा’ के नारे लगाते हैं। मजहबी अपमान के शक में लोग हमले का शिकार होते या मारे जाते हैं, जैसे उदयपुर में कन्हैया लाल का भयानक कत्ल। कन्हैया लाल की गलती क्या थी? नूपुर शर्मा का समर्थन करना.. जिन्होंने भगवान शिव का सम्मान बचाने के लिए अपने साथ पैनल में बैठे शख्स को उसी की भाषा में जवाब दिया था। लेकिन तक सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा को न सिर्फ डाँट लगाई थी, बल्कि अकेले ‘देश को आग लगाने’ तक का दोष उनके माथे पर मढ़ दिया था।
जो सड़कों पर घूम-घूम कर कत्ल और तोड़फोड़ कर रहे थे, वो बिना नुकसान के बच निकले। राज्य और न्यायपालिका खूनखराबे के डर से सावधानी से चलते रहे और चुप्पी साधे रहे।
इसके उलट हिंदू कानूनी याचिकाओं के ज़रिए उपाय ढूँढते हैं। वो संवैधानिक अधिकारों का सहारा लेते हैं। संस्थाओं पर भरोसा करते हैं और उन्हें क्या मिलता है? तंज? उन्हें कहा जाता है कि ‘जा के प्रार्थना करो’। उनकी आस्था को छोटा बताया जाता है, भक्ति को कमतर आँका जाता है और याचिकाओं को ‘पब्लिसिटी स्टंट’ करार दे दिया जाता है।
संदेश साफ़ और बेहद खतरनाक है- आक्रामकता को सम्मान मिलहै। कानून के रास्ते पर चलना मज़ाक का न्योता देता है। असल व्यवहार में देखें तो भारत की धर्मनिरपेक्षता हिंसा को ईनाम देती है, लेकिन संयम (हिंदू) धारण करने वालों को सजा।
अगर प्रार्थना ही जवाब है, तो अदालतों की क्या ज़रूरत?
चीफ जस्टिस की टिप्पणी ‘जा के अपने भगवान से प्रार्थना कर’ न सिर्फ़ अपमानजनक है बल्कि तर्क की दृष्टि से बेतुकी। अगर दिव्य हस्तक्षेप ही हल है, तो अदालतें क्यों? सुनवाई क्यों, फैसले क्यों, कानून की व्याख्या क्यों? हर मुकदमेबाज़ को बस प्रार्थना करने को कहा जा सकता, चाहे वो कंपनियाँ अनुबंध लड़ रही हों, नागरिक ज़मीन विवाद कर रहे हों या पीड़ित न्याय माँग रहे हों।
लेकिन ज़ाहिर है, ऐसा तंज सबके लिए नहीं बाँटा जाता। किसी कॉर्पोरेट वकील से कभी नहीं कहा गया कि वित्तीय झगड़ों के लिए ‘देवी लक्ष्मी से प्रार्थना करो’। किसी ईसाई से नहीं कहा गया कि राहत के लिए ‘येशु से प्रार्थना करो’। किसी मुसलमान से नहीं कहा गया कि वक्फ दावों की जगह ‘अल्लाह की रहमत माँगो’। सिर्फ़ हिंदुओं से कहा जाता कि उनकी आस्था उनके कानूनी हक को अमान्य कर देती है।
बेंच से हिंदूफोबिया को सामान्य बनाना
इस घटना का सबसे खतरनाक पहलू ये है कि ये हिंदूफोबिया को सामान्य कैसे बनाता है। जब भारत का चीफ जस्टिस हिंदू आस्था का मज़ाक उड़ाता है, तो वो पूरे सिस्टम के लिए टोन सेट करता है। इससे बुद्धिजीवी, अकादमिक और मीडिया एलीट्स को हौसला मिलता कि हिंदू मान्यताओं को अंधविश्वास कहते रहें, हिंदू शिकायतों को ‘बहुसंख्यकवाद’ ठहराएँ और हिंदू दावों को ‘पब्लिसिटी स्टंट’ कहें।
यही तरीका है जिससे पूर्वाग्रह गहरा होता है, न सिर्फ़ भीड़ द्वारा मंदिर जलाने से, बल्कि चोगे वाले ताकतवरों के हल्के-फुल्के तंजों से। हर तिरस्कार हिंदुओं की गरिमा को चोट पहुँचाता है। उनके देवताओं का मज़ाक सामाजिक रूप से स्वीकार्य बना दिया जाता है और उसे संस्थागत रूप से स्वीकृति दे देता है।
अगर कानूनी तौर पर सीजेआई को लगता था कि ये याचिका एएसआई के दायरे में है न कि सुप्रीम कोर्ट के, तो ये बात वो सीधे तरीके से भी कह सकते थे। चूँकि सुप्रीम कोर्ट भारत के संविधान का मध्यस्थ और व्याख्याकार है, उसी को कहने का हक है। लेकिन सीजेआई ने जो कुछ नगण्य आदेश एएसआई के पास जाने का होना चाहिए था, उसे ओपन कोर्ट में एक तमाशे में बदल दिया, जहाँ देश की सबसे ऊंची न्यायिक अथॉरिटी ने एक अरब लोगों की आस्था का मज़ाक उड़ाया।
बहुत समय बीत चुका हो सकता है, लेकिन समय अन्याय का बचाव नहीं है। गुलामी सदियों बाद खत्म हुई। अपार्थीड दशकों बाद जड़ से उखड़ी। ऐतिहासिक गलतियाँ सुधारी जा सकती हैं और सुधारनी चाहिए, चाहे कितनी पुरानी हों। इसके उलट सीजेआई ने अपने तंज से जो किया, उसका हिंदुओं को सदियों तक दंश झेलना पड़ सकता है।
सिर्फ़ भक्ति का नहीं, सदियों की हिंदू उत्पीड़न का मजek
याचिकाकर्ता का मज़ाक उड़ाकर चीफ जस्टिस ने सिर्फ़ एक गुहार खारिज नहीं की; उन्होंने हिंदुओं द्वारा सहन सदियों के धार्मिक उत्पीड़न को खारिज किया उसके दर्द को, और इतिहास से सुलह की संभावना को ठुकराया। वही कोर्ट जिसने राम जन्मभूमि मामले में राम लला को एक पक्ष माना, वो अब विष्णु के भक्तों पर हँस रहा है। वही न्यायपालिका जो अल्पसंख्यकों के मामले में आँख बंद कर लेती है, वो हिंदुओं से कहता है कि संवैधानिक तरीके से न्याय माँगने की जगह जाकर प्रार्थना करो और भगवान को बुलाओ।
यही आज भारतीय धर्मनिरपेक्षता की हालत है- एकतरफा रास्ता, जहाँ हिंदू अपनी आस्था के लिए ताने खाते हैं, तो अल्पसंख्यकों की शिकायतों को लाड़-प्यार से सहलाया जाता है। न्याय इस आधार पर दिया जाता है कि कौन सबसे ज़ोर से चिल्लाता है या फिर हिंसा की धमकी देता है।
इतिहास यहीं नहीं रुकेगा। हर कटी मूर्ति, हर अपवित्र मंदिर, हर चुप करा गया भक्त, सभ्यता के न्याय की लड़ाई के जारी रहने की याद दिलाता रहेगा। कोर्ट ताने कस सकते, लेकिन सभ्यता का कर्तव्य अमर है- याद रखना, बहाल करना और जो हमारा है वो वापस लेना।
तब तक हिंदुओं को कड़वी सच्चाई के साथ जीना पड़ेगा कि अपनी ही धरती पर 2025 में भी जब वो अपने देवताओं के लिए सम्मान माँगते हैं, तो देश की सर्वोच्च अदालत कहती है- “जा के प्रार्थना करो।”
सहिष्णुता सिखाने का नैतिक अधिकार खो गया
और आखिर में… याचिका कबूल करें या खारिज… ये तो कोर्ट के विवेक पर निर्भर करता है। लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की बेंच थोड़ी सहिष्णुता बरत सकती थी। वो आसान तरीके से इस याचिका को खारिज कर सकती थी। इसके बजाय सीजेआई की बेंच ने हिंदू भक्त की आस्था का मजाक उड़ाने का रास्ता चुना। जजों से संयम और गरिमा की अपील की जाती है, न कि 16वीं शताब्दी के मूर्ति भंजकों की भाषा बोलने की।
जब न्यायपालिका बहुसंख्यतों की गहरी आस्था की उपेक्षा कर उनका मजाक उड़ाती है, तब वो दूसरों को सहिष्णुता और सम्मान सिखाने का ज्ञान देने का नैतिक आधार खो देती है।
मूल रूप से ये लेख अंग्रेजी में प्रकाशित है। मूल लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
You may also like
तहसीलदार अस्सी हजार रुपये की रिश्वत लेते गिरफ्तार
सवाई जयसिंह : 12 वर्ष की आयु में राजगद्दी संभालने वाले महाराजा, जिन्होंने 'जयपुर' बसाया
एच-1बी वीजा फीस हाइक : केंद्र सरकार नैसकॉम के साथ स्थिति का कर रही आकलन
'द लंचबॉक्स' के 12 साल पूरे, निमरत कौर ने ताजा की पुरानी यादें
H-1B पर बड़ा झटका: ट्रंप के $100,000 शुल्क और भारतीय तकनीक पर सवाल