ब्रिटेन के प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर ने फ़लस्तीन को एक राष्ट्र के तौर पर मान्यता दे दी है. रविवार को स्टार्मर ने इस बारे में बयान जारी किया.
उन्होंने कहा, "आज फ़लस्तीनियों और इसराइलियों के लिए शांति की उम्मीद और दो-राष्ट्र समाधान को फिर से ज़िंदा करने के लिए ब्रिटेन ने औपचारिक रूप से फ़लस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता दी है."
पीएम स्टार्मर का कहना है कि इस घोषणा को हमास से नहीं जोड़ना चाहिए और यह समाधान हमास को किसी तरह का इनाम नहीं है.
उन्होंने कहा, "ग़ज़ा में लाखों लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जो खाना और पानी लेने जा रहे थे. वहां हो रही भूख और तबाही असहनीय हैं."
ब्रिटेन के अलावा कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने भी फ़लस्तीन को मान्यता देने की औपचारिक घोषणा की है.
कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने एक्स पर लिखा, "कनाडा ने फ़लस्तीन को मान्यता दी है और फ़लस्तीन और इसराइल दोनों के लिए शांतिपूर्ण भविष्य के निर्माण में हमारी साझेदारी का प्रस्ताव दिया है."
कनाडा के बाद ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज़ ने एक्स पर आधिकारिक बयान जारी किया है.
बयान में उन्होंने कहा है कि ऑस्ट्रेलिया ने कनाडा के बाद फ़लस्तीन को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दी है.
इसराइल के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि फ़लस्तीन को देश के रूप में मान्यता देना "जिहादी हमास के लिए इनाम के अलावा और कुछ नहीं है."
मंत्रालय ने एक्स पर एक पोस्ट किया जिसमें कहा गया है, "हमास नेताओं ने खुद मान लिया है: यह मान्यता 7 अक्तूबर के नरसंहार का सीधा नतीजा है, यानी उसका 'फल' है."
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने कुछ दिन पहले फ़लस्तीन को मान्यता देने वाले देशों पर अपनी बात रखी थी.
पिछले महीने, उन्होंने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को एक पत्र लिखा था. इसमें उन्होंने मैक्रों पर 'यहूदी-विरोधी भावनाओं को भड़काने' का आरोप लगाया था.
नेतन्याहू ने लिखा था, "यह कूटनीति नहीं है. यह हमास के आतंक को बढ़ावा देना है. यह क़दम हमास की क़ैद में मौजूद बंधकों को न छोड़ने के फ़ैसले को और मज़बूती देता है."
इसके जवाब में फ्रांस ने कहा कि "यह समय गंभीरता दिखाने और ज़िम्मेदारी लेने का है, भ्रम और चालाकी का नहीं."
नेतन्याहू ने अपने ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष एंथनी अल्बनीज़ पर भी आरोप लगाया कि उन्होंने 'इसराइल को धोखा दिया' और ऑस्ट्रेलिया के यहूदी समुदाय को नज़रअंदाज़ किया.
ऑस्ट्रेलियाई इमिग्रेशन मंत्री टोनी बर्क ने कहा कि "नेतन्याहू ऑस्ट्रेलिया के उस फ़ैसले पर गुस्सा निकाल रहे हैं, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा के साथ मिलकर फ़लस्तीन को मान्यता देने पर राज़ी हुआ है."
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पॉल एडम्स, बीबीसी के कूटनीतिक संवाददाता
फ़लस्तीन को लेकर दुनियाभर के देशों की राय बंटी हुई है.
उसे काफ़ी हद तक अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली हुई है, विदेशों में उसके राजनयिक दफ़्तर हैं और उसकी टीमें खेल प्रतियोगिताओं में, यहां तक कि ओलंपिक में भी हिस्सा लेती हैं.
लेकिन इसराइल के साथ फ़लस्तीनियों के लंबे विवाद की वजह से उसकी कोई अंतरराष्ट्रीय मान्य सीमाएं नहीं हैं, कोई राजधानी नहीं है और न ही अपनी कोई सेना है.
वेस्ट बैंक पर इसराइल के सैन्य क़ब्ज़े की वजह से, 1990 के दशक में हुए शांति समझौतों के बाद बनी फ़लस्तीनी अथॉरिटी (पीए) अपनी ज़मीन या लोगों पर पूरा नियंत्रण नहीं रखती.
वहीं बीते लगभग दो सालों से ग़ज़ा एक विनाशकारी युद्ध के बीच है.
चूंकि फ़लस्तीन एक तरह से अधूरा देश है, इसलिए मान्यता देना ज़्यादातर प्रतीकात्मक है. यह एक मज़बूत नैतिक और राजनीतिक संदेश है लेकिन ज़मीन पर इससे बहुत कम बदलाव की उम्मीद है.
फिर भी यह प्रतीकात्मक कदम बहुत मायने रखता है. जुलाई में संयुक्त राष्ट्र में दिए एक भाषण में ब्रिटेन के पूर्व विदेश मंत्री डेविड लैमी ने कहा था, "दो-राष्ट्र समाधान का समर्थन करने के लिए ब्रिटेन पर ख़ास ज़िम्मेदारी है."
उन्होंने 1917 के बाल्फ़ोर डिक्लेरेशन का ज़िक्र किया- जिस पर पूर्व विदेश मंत्री आर्थर बाल्फ़ोर ने हस्ताक्षर किए थे. इसमें पहली बार ब्रिटेन ने "फ़लस्तीन में यहूदी लोगों के लिए होमलैंड बनाने" का समर्थन किया था.
लेकिन लैमी ने कहा, उस घोषणा में यह गंभीर वादा भी था कि "फ़लस्तीन की गैर-यहूदी आबादी के लोगों और उनके धार्मिक अधिकारों को कोई नुक़सान नहीं पहुंचाया जाएगा."
इसराइल के समर्थक अक्सर कहते हैं कि लॉर्ड बाल्फ़ोर ने फ़लस्तीनियों का नाम नहीं लिया था और न ही उनके राष्ट्र के उनके अधिकारों के बारे में कुछ कहा था.
पहले जिसे फ़लस्तीन कहा जाता था और जिस पर 1922 से 1948 तक ब्रिटेन का लीग ऑफ़ नेशन्स मंडेट के तहत शासन था, उसे अब तक अधूरा अंतरराष्ट्रीय मसला माना जाता है.
1948 में इसराइल बना, लेकिन फ़लस्तीन को समानांतर देश बनाने की कोशिशें कई वजहों से नाकाम हो गईं.
जैसा कि लैमी ने कहा, नेता अब 'दो-राष्ट्र समाधान' शब्द बोलने के आदी हो गए हैं.
लेकिन दो-राष्ट्र समाधान लाने की अंतरराष्ट्रीय कोशिशें नाकाम रही हैं. वहीं वेस्ट बैंक के बड़े हिस्से पर इसराइल की बस्तियां, जो अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत ग़ैरक़ानूनी हैं.
दो-राष्ट्र समाधान के तहत वेस्ट बैंक और ग़ज़ा पट्टी में एक फ़लस्तीनी राज्य की स्थापना होनी है, जो मोटे तौर पर 1967 के अरब-इसराइल युद्ध से पहले की सीमाओं के आधार पर होगी. इसकी राजधानी पूर्वी येरुशलम होगी, जिस पर इसराइल ने इस युद्ध के बाद कब्ज़ा किया था.

फ़िलहाल संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से लगभग 75 प्रतिशत देश फ़लस्तीन को मान्यता देते हैं.
संयुक्त राष्ट्र में फ़लस्तीन को 'स्थायी पर्यवेक्षक' का दर्जा मिला है. इससे वह बैठकों में हिस्सा ले सकता है लेकिन उसे मतदान का अधिकार नहीं है.
ब्रिटेन और फ़्रांस से मान्यता मिलने के बाद, फ़लस्तीन को जल्द ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में से चार का समर्थन मिल जाएगा.
चीन और रूस ने 1988 में ही फ़लस्तीन को मान्यता दे दी थी.
इस तरह, अमेरिका अकेला देश बच जाएगा जिसने उसे मान्यता नहीं दी है. अमेरिका इसराइल का सबसे मज़बूत सहयोगी है.
अमेरिका ने 1990 के दशक के मध्य में बनी फ़लस्तीनी अथॉरिटी को मान्यता दी थी, जिसका नेतृत्व महमूद अब्बास कर रहे हैं.
तब से अब तक कई अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने भविष्य में फ़लस्तीन को एक देश बनाने का समर्थन किया है. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप उनमें शामिल नहीं हैं. दोनों कार्यकाल में ट्रंप की नीतियां पूरी तरह इसराइल के पक्ष में रही हैं.
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जेम्स लैंडेल, कूटनीतिक संवाददाता
ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा ने रविवार, 21 सितंबर को ही फ़लस्तीन को मान्यता क्यों दी? शायद आप सोचेंगे कि अगर ये देश एक साथ संयुक्त राष्ट्र में अपने नेताओं के साथ यह घोषणा करते, तो इसका असर अधिक होता.
लेकिन इसका कारण सोमवार से शुरू होने वाला यहूदी नया साल है – जिसे 'रोश हशनाह' कहा जाता है. इस धार्मिक त्योहार के दौरान इस विवादास्पद निर्णय की घोषणा कर के डिप्लोमैट्स इसराइली लोगों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहते थे.
एक और कारण यह हो सकता है कि किएर स्टार्मर इस सप्ताह संयुक्त राष्ट्र महासभा में मौजूद नहीं होंगे और इस महत्वपूर्ण घोषणा को ब्रिटेन के प्रतिनिधि, उप प्रधानमंत्री डेविड लैमी या विदेश मंत्री यवेट कूपर को सौंपा नहीं जा सकता था.

पिछले सप्ताह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ब्रिटेन दौरे पर थे. इस दौरान उनसे और ब्रितानी प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर से फ़लस्तीन को मान्यता देने की उनकी योजना के बारे में पूछा गया था.
संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ट्रंप ने पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए कहा, "इस मुद्दे पर मेरी प्रधानमंत्री (किएर स्टार्मर) से असहमति है. असल में, हमारी कुछ ही असहमतियां हैं."
इसके बजाय, अमेरिकी राष्ट्रपति ने ज़ोर दिया था कि वे चाहते हैं कि हमास ग़ज़ा में बचे सभी बंधकों को तुरंत रिहा करे.
ट्रंप ने कहा, "हम चाहते हैं कि यह (युद्ध) ख़त्म हो. हम बंधकों की रिहाई चाहते हैं. यही इसराइल के लोगों की इच्छा है."
जून में, इसराइल में अमेरिकी राजदूत माइक हकबी ने कहा था कि उन्हें नहीं लगता कि अमेरिका अब फ़लस्तीन को मान्यता देने का समर्थन करता है.
हाल ही में, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने कहा था कि फ़लस्तीन को मान्यता देने की अंतरराष्ट्रीय मुहिम से हमास को 'और अधिक हौसला' मिलेगा.
कनाडा फ़लस्तीन को मान्यता देने वाला पहला जी-7 देश बना है.
जी-7 देशों में फ़्रांस, कनाडा, इटली, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका शामिल हैं. ये देश वैश्विक व्यापार और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में बड़ी भूमिका निभाते हैं.
फ़्रांस पहला जी-7 देश था जिसने कहा था कि वो फ़लस्तीन को मान्यता देगा. लेकिन वह इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा में आधिकारिक तौर पर घोषित करेगा.
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने घोषणा की थी, "मध्य पूर्व में न्यायपूर्ण और स्थायी शांति के लिए, मैंने फै़सला किया है कि फ्रांस फ़लस्तीन को मान्यता देगा. हमें हमास का डिमिलिट्राइजेशन करना होगा और ग़ज़ा की सुरक्षा और पुनर्निर्माण को सुनिश्चित करना होगा."
कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने जुलाई में कहा था कि कनाडा लंबे समय से दो-राष्ट्र समाधान के पक्ष में रहा है. उनका कहना था कि इसराइल के क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में बस्तियों के विस्तार और ग़ज़ा की बिगड़ती मानवीय स्थिति के कारण "यह तरीक़ा अब टिकाऊ नहीं रहा."
अमेरिका ने अपने जी-7 सहयोगियों की इस पहल की आलोचना की है और कहा है कि उनके पास फिलहाल इसके लिए कोई योजना नहीं है.
बाकी तीन जी-7 देशों- इटली, जर्मनी और जापान ने फ़लस्तीन को मान्यता देने का कोई वादा नहीं किया है.
पुर्तगाल और न्यूज़ीलैंड भी फ़लस्तीन को मान्यता देने के बारे में विचार कर रहे हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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