प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू को दोस्त कहकर संबोधित करते रहे हैं.
विदेश मंत्री एस जयशंकर भी कई बार कह चुके थे कि राष्ट्रपति ट्रंप से पीएम मोदी के 'पर्सनल कनेक्शन' बहुत अच्छे हैं.
लेकिन ट्रंप से पीएम मोदी के 'पर्सनल कनेक्शन' काम नहीं आए और भारत अमेरिका के 50 फ़ीसदी टैरिफ़ का सामना कर रहा है.
बिन्यामिन नेतन्याहू के भी ट्रंप दोस्त हैं और वह चाहते हैं कि मोदी से उनके दोस्त के संबंध ठीक हो जाए.
दिलचस्प है कि ट्रंप के मामले में इसराइल और पाकिस्तान एक लाइन पर दिखे. ट्रंप को पाकिस्तान ने शांति का नोबेल सम्मान देने के लिए नामांकित किया तो कुछ दिन बाद इसराइल ने भी ऐसा ही किया.
ये अलग बात है कि पाकिस्तान ने इसराइल को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता तक नहीं दी है.

ट्रंप ने जब भारत पर टैरिफ़ दोगुना करते हुए 50 फ़ीसदी करने की घोषणा की थी तब इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने कहा था कि पीएम मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप उनके शानदार दोस्त हैं.
नेतन्याहूने कहा था कि वह ट्रंप को डील करने के लिए पीएम मोदी को कुछ सुझाव देंगे लेकिन सार्वजनिक रूप से नहीं.
भारतीय पत्रकारों के एक समूह से सात अगस्त को नेतन्याहू ने कहा था, ''भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में एक बुनियादी समझ है. दोनों देशों के रिश्ते की बुनियाद बहुत मज़बूत है."
उनका कहना था, "यह भारत और अमेरिका के हित में होगा कि दोनों देश एक सहमति पर पहुँचें और टैरिफ़ का मुद्दा सुलझाएं. यह हमारे हक़ में भी होगा क्योंकि दोनों देश हमारे अच्छे दोस्त हैं.''
इसराइल से आपके अच्छे संबंध हैं तो अमेरिका से भी अच्छे होंगे, ऐसा किसी स्थापित तथ्य की तरह कहा जाता था.
अमेरिका में जूइश लॉबी लंबे समय से ताक़तवर रही है. अमेरिका भी इसराइल के अस्तित्व में आने के बाद से ही कोशिश करता रहा है कि उसकी स्वीकार्यता बढ़े.
ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में अब्राहम एकॉर्ड के ज़रिए कई इस्लामिक देशों से इसराइल को मान्यता दिलवाई थी.
भारत के आज़ाद होने के नौ महीने बाद इसराइल अस्तित्व में आया था.
जवाहरलाल नेहरू बिना फ़लस्तीन के इसराइल पर सहमत नहीं थे. नेहरू ने इसराइल बनने के क़रीब दो साल बाद उसे एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में स्वीकार किया था.
अमेरिका चाहता था कि भारत इसराइल को तत्काल मान्यता दे लेकिन नेहरू सहमत नहीं थे. इसराइल को मान्यता देने के बावजूद भारत ने राजनयिक संबंध स्थापित नहीं किए थे.
भारत ने इसराइल को मान्यता देने के क़रीब 42 साल बाद 23 जनवरी, 1992 में राजनयिक संबंध स्थापित किए.
भारत ने इसराइल से राजनयिक संबंध तब कायम किए जब सोवियत संघ का विघटन हो गया था.
तब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव आर्थिक सुधारों को भी अंजाम दे रहे थे. भारत को सोवियत संघ के विघटन के बाद नए पार्टनर की ज़रूरत थी.
शीत युद्ध के अंत के बाद दुनिया की तस्वीर बदल गई थी. सोवियत यूनियन के पतन के बाद भारत को भी सैन्य आपूर्ति के लिए एक भरोसेमंद साथी की तलाश थी.
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इसराइल सैन्य हथियारों की आपूर्ति भारत में कर सकता था लेकिन इसके लिए अमेरिकी मंज़ूरी ज़रूरी होती थी क्योंकि दोनों देश मिलकर उत्पादन करते थे.
स्थिति ऐसी थी कि इसराइल से क़रीबी रखनी है तो अमेरिका से दोस्ती मायने रखती थी और अमेरिका से क़रीबी रखनी हो तो इसराइल से अच्छे संबंध की ज़रूरत पड़ती थी.
अब जब अमेरिका और भारत में तनातनी है तो इसराइल की चिंता भी स्पष्ट रूप से नज़र आ रही है. अमेरिकन जूइश कमिटी ने भी भारत के प्रति अमेरिका के व्यवहार को लेकर चिंता जताई है.
29 अगस्त को अमेरिकन जूइश कमिटी ने एक्स पर एक पोस्टमें लिखा था, ''भारत पर अमेरिकी अधिकारियों के हमले से हम चिंतित हैं. व्हाइट हाउस के सलाहकार ने यूक्रेन पर रूस के क्रूर हमले को 'मोदी वॉर' कहा है."
"रूस पर ऊर्जा के मामले में भारत की बढ़ती निर्भरता दुखद है लेकिन पुतिन के युद्ध अपराध के लिए भारत ज़िम्मेदार नहीं है.''
''भारत एक लोकतांत्रिक देश है और अमेरिका के रणनीतिक पार्टनर के रूप में ख़ास अहमियत रखता है. भारत दुनिया की महाशक्तियों की आपसी प्रतिस्पर्धा में काफ़ी महत्वपूर्ण है. अब समय आ गया है कि भारत से संबंध को पटरी पर लाया जाए.''
इसराइल की डॉ लॉरेन डैगन अमोस बर-इलान यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं. अमोस ने अमेरिका और भारत में बढ़ी तनातनी पर लिखा है, ''ट्रंप और मोदी दोनों ही अपने देश में मैन्युफैक्चरिंग बढ़ाकर चीन पर निर्भरता कम करना चाहते हैं, लेकिन दोनों साथ में मिलकर काम करने की बजाय आपस में टकरा रहे हैं. यह टकराव अमेरिका और भारत की साझेदारी की परीक्षा ले रहा है.''

डैगन ने लिखा है, "मोदी और ट्रंप दोनों अपने देश को मज़बूत देखना चाहते हैं लेकिन दोनों के विज़न आपसे में टकरा रहे हैं. जो भी लोग इन दोनों नेताओं को जानते हैं, उनके लिए यह टकराव अप्रत्याशित नहीं है.''
''ट्रंप अमेरिका का प्रभुत्व चाहते हैं और मोदी भी वैश्विक व्यवस्था को नया आकार देने में भारत की भूमिका सुनिश्चित करना चाहते हैं. ट्रंप लेन-देन पर आधारित विदेश नीति को बढ़ावा दे रहे हैं."
"इसके अलावा रूस यूक्रेन युद्ध की वजह से ट्रंप को रूसी तेल को लेकर भारत पर दबाव बनाने का मौका मिल गया है. लेकिन ऐसा करके ट्रंप एक ऐसी साझेदारी को नुक़सान पहुँचा रहे हैं, जिसे दशकों से बड़ी सावधानी के साथ सहेजा जा रहा था.''
डैगन मानती हैं कि अगर अमेरिका भारत को रणनीतिक साझेदार के तौर पर देखने की बजाय टैरिफ़ के टार्गेट के तौर पर लेता है तो इससे केवल द्विपक्षीय संबंध ही नहीं ख़राब होंगे, बल्कि इंडो पैसिफिक रणनीति पर भी असर पड़ेगा.
यूएई में भारत के राजदूत रहे नवदीप सूरी कहते हैं कि इसराइल पहले से ही अलग-थलग पड़ा हुआ है, ऐसे में ट्रंप की नीतियां उसे और परेशान करेंगी.
नवदीप सूरी कहते हैं, ''अमेरिका इसराइल को कुछ भी करने दे रहा है. अब यूएई ने कहा है कि अगर इसराइल ने वेस्ट बैंक को अपने में मिलाने की कोशिश की तो यह उसके लिए रेड लाइन होगी. अब्राहम एकॉर्ड के ज़रिए ट्रंप ने यूएई और इसराइल में राजनयिक संबंध स्थापित कराए थे लेकिन अब ये संकट में दिख रहे हैं.''
"भारत और इसराइल का संबंध अमेरिका पर आश्रित नहीं है लेकिन अमेरिका और भारत की तनातनी इसराइल के हक़ में नहीं है."
"आप इसे ऐसे समझ सकते हैं कि जिस देश के दम पर इसराइल फ़लस्तीन में कुछ भी कर रहा है, उसके साथ दुनिया के लगभग देशों के संबंध ख़राब हो जाएंगे तो यह किसी लिहाज से नेतन्याहू के हक़ में नहीं होगा."
नवदीप सूरी कहते हैं, '''भारत को अमेरिका में जूइश लॉबी से मदद मिलती रही है लेकिन अब जूइश लॉबी भी पूरी तरह से बँटी हुई है. ख़ासकर नेतन्याहू को लेकर. ज़ोहरान ममदानी खुलकर फलस्तीनियों का समर्थन कर रहे हैं लेकिन न्यूयॉर्क के नौजवान यहूदी उनका समर्थन कर रहे हैं.''
ट्रंप के 50 फ़ीसदी टैरिफ़ पर भारत बहुत प्रतिक्रिया नहीं दे रहा है लेकिन झुकने के लिए भी तैयार नहीं है.
सऊदी अरब में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद कहते हैं कि भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह रणनीतिक स्वायत्तता से समझौता नहीं करेगा, भले ही सामने अमेरिका क्यों ना हो.

तलमीज़ अहमद कहते हैं, ''अब अमेरिका में जूइश लॉबी पहले की तरह बहुत मज़बूत नहीं है. जूइश लॉबी अमेरिका में अब विभाजित है. ऐसे में भारत को ट्रंप के टैरिफ़ से राहत दिलाने में कोई मदद नहीं मिलने जा रही है."
उनका कहना है, "शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) में भारत ने पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि उसकी विदेश नीति अमेरिका के मातहत रहकर काम नहीं करेगी.''
''एससीओ समिट में ईरान पर इसराइल और अमेरिका के हमले की निंदा की गई और भारत की भी इससे सहमति रही. यानी ऐसा नहीं होगा कि भारत अमेरिका को ख़ुश करने के लिए अपनी विदेश नीति के सिद्धांतों से कोई समझौता करेगा.''
इसराइल की निंदा से भारत तब सहमत दिखा जब ट्रंप ने भारत को अपमानित करने के अंदाज़ में लगातार निशाना साधा है.
भारत और अमेरिका के संबंधों में जूइश कम्युनिटी की क्या भूमिका है? तलमीज़ अहमद कहते हैं, ''ये अब पुरानी बात हो गई है. जूइश कम्युनिटी का अब वैसा प्रभाव नहीं है. ट्रंप का पर्सनल संबंध नेतन्याहू से ज़रूर है.''
भारत और ट्रंप की बढ़ती तनातनी के बीच आई2यू2 का क्या होगा?
'आई 2' इंडिया और इसराइल के लिए है. वहीं 'यू 2' यूएस और यूएई के लिए है.
इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकनॉमिक कॉरिडोर (आईएमइसी) का क्या होगा?
आई2यू2 हो या आईएमइसी दोनों में अमेरिका की अहम भूमिका है और इसराइल के लिए भी महत्वपूर्ण है.
तलमीज़ अहमद कहते हैं, ''आई2यू2 अमेरिका की पहल थी. पहले इंडिया, यूएई और इसराइल बातचीत कर रहे थे. इसमें जबरन अमेरिका ने दखल दिया और आई2यू2 बना दिया."
"अमेरिका चाहता था कि पश्चिम एशिया में इसराइल की मौजूदगी बढ़े. इसके तहत आई2यू2 और आईएमईसी का आग़ाज़ हुआ.''
''आई2यू2 बिज़नेस कम्युनिटी के लिए था और इसमें सरकार बहुत शामिल नहीं थी. जहाँ तक आईएमईसी का सवाल है तो जब तक पश्चिम एशिया में शांति नहीं लौटेगी और फ़लस्तीन एक देश नहीं बनेगा तब तक यह भी ज़मीन पर नहीं उतर पाएगा. इसराइल को जब तक अरब के देश स्वीकार नहीं करेंगे तब तक मुश्किल ही है.''
इसराइल की पूर्व सांसद और मध्य-पूर्व मामलों की एक्सपर्ट सेनिया स्वेतलोवा ने यरुशलम पोस्टमें इसी साल फ़रवरी महीने में ट्रंप के साथ मोदी की मुलाक़ात से पहले 'व्हाई इसराइल शुड केयर अबाउट द मोदी-ट्रंप मीटिंग' शीर्षक से आर्टिकल लिखा था.
सेनिया स्वेतलोवा ने लिखा था, ''भारत और अमेरिका में अच्छा संबंध इंडिया मिडल-ईस्ट-यूरोप इकनॉमिक कॉरिडोर (आईएमईसी) के लिए बहुत ज़रूरी है."

सेनिया स्वेतलोवा ने लिखा था, "चीन अप्रत्यक्ष रूप से ग़ज़ा में युद्ध के दौरान यमन में हूती का समर्थन कर रहा था. इसराइल का इससे चिंतित होना लाजिमी है. चीन ईरान से बड़ी मात्रा में तेल भी ख़रीद रहा है. इसलिए भारत और अमेरिका का साथ रहना ज़रूरी है.''
यरुशलम पोस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है, ''इसराइल भारत के चार शीर्ष के रक्षा साझेदारों में से एक है. भारत को टेक्नोलॉजी ट्रांसफ़र करने के मामले में इसराइल अमेरिका से भी आगे है. दोनों देशों के बीच भरोसे की कमी नहीं है.''
''इसीलिए आईएमइसी मायने रखती है. यह भारत के आर्थिक भविष्य और इसराइल की स्वीकार्यता बढ़ाने में अहम साबित होगी. अगर आईएमइसी बाधित होती है तो ईरान और चीन के लिए अच्छी ख़बर होगी."
"चीन ख़ुश होगा कि बेल्ट एंड रोड के जवाब में शुरू हुई आईएमइसी ज़मीन पर उतरने में नाकाम हो रही है.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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