'घर घर की रानी, तुलसी विरानी'- साल 2004 में जब अभिनेत्री स्मृति इरानी ने भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया था, तब उस समय की चुनावी सभाएँ इन नारों से सजी होती थीं.
लोग उन्हें स्मृति इरानी नहीं, तुलसी विरानी के रूप में पहचानते थे.
बहू के रूप में तुलसी विरानी यानी स्मृति इरानी टीवी सीरियल 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' के सबसे मशहूर किरदारों में से एक थीं.
आज की पीढ़ी स्मृति इरानी को भाजपा नेता, सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री के तौर पर जानती है. उन्हें तीखी राजनीतिक बहसों में बोलते हुए सुना है, राहुल गांधी के ख़िलाफ़ पलटवार करते देखा है.
जुलाई 2000 में 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' का पहला एपिसोड आया था.
यह वह दौर था जब भारत के क़स्बों, शहरों में हिंदी सीरियल देखने वाले लोग रात को 10.30 बजे कामकाज निपटा, 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' देखने के लिए जुटते थे.
इसे देखना एक तरह का पारिवारिक, सामूहिक उपक्रम था.
अब क़रीब 25 साल बाद, दर्शकों ने स्मृति इरानी जैसे कुछ पुराने चेहरों और कई नए चेहरों के साथ टीवी सेट पर 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी- सीज़न 2' देखा है.
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एक ओर जहाँ इस सीरियल ने कामयाबी की नई इबारतें लिखीं, वहीं इसकी आलोचना भी होती रही है कि औरतों के मामलों में इस शो ने पिछड़ी सोच को पर्दे पर लाने का ट्रेंड शुरू किया.
वैसे भारत के बाहर भी यह सीरियल बहुत मशहूर रहा है. वह भी बिना किसी सोशल मीडिया के.
'सॉफ्ट पावर ऑफ़ इंडियन टेलीविज़न शोज़ इन नेपाल' नाम के शोध पत्र में डंबर राज भट्टा ने लिखा है, "सीरियल का असर यह था कि नेपाल में शहरी औरतें कहती थीं कि उन्हें तुलसी जैसी बहू चाहिए. मेरी एक रिश्तेदार ने कहा था कि तुलसी जैसी बहू हो जो बड़ों की हर बात माने."
दारी भाषा में डब होकर अफ़ग़ानिस्तान में प्रसारित होने वाला यह पहला भारतीय सीरियल बना. वहाँ यह तुलसी नाम से मशहूर था. वहाँ यह क़िस्सा मशहूर था कि जब लोग तुलसी देख रहे होते थे, चोर ठीक उसी समय चोरी करते थे क्योंकि उन्हें पता था कि लोग टीवी पर टकटकी लगाए बैठे होंगे.
हालांकि अफ़ग़ान संस्कृति के हिसाब से कई सीन धुँधले कर दिए जाते थे- जैसे औरतों के कपड़े या नाचने गाने के सीन या धार्मिक चिह्न.
भूटान, श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल कई जगह इस सीरियल का क्रेज़ था.
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यूँ तो नए सीज़न के अभी कुछ ही एपिसोड आए हैं, जिनमें जेन ज़ी है, सोशल मीडिया पर हैशटैग डालते और सेल्फ़ी अपलोड करते किरदार हैं. लेकिन बातें कुछ वही पुरानी सी लगीं.
जैसे जब तुलसी अपनी बहू से कहती - घर में माँ, बहू, बेटी अगर खाना बनाए और खाने की महक पूरे घर में जाए तभी घर, घर जैसा लगता है.
या जब तुलसी बच्चों से कहती है, "मैं काम नहीं करूँगी तो कौन करेगा. ये घर ऐसे ही चलता है."
पुराने सीरियल की अप्रत्याशित सफलता के बावजूद यह सवाल अब भी बरक़रार है कि इस सीरियल ने क्या वाक़ई औरतों के मुद्दों को प्रोग्रेसिव तरीके़ से दिखाया.
कुछ दिन पहले एकता कपूर ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर लिखा, "एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने शोध में पाया था कि इस शो ने भारतीय घरों में औरतों को एक नई आवाज़ दी. साल 2000 और 2005 के बीच पहली बार औरतें पारिवारिक चर्चाओं का हिस्सा बनने लगीं. ये बदलाव काफ़ी हद तक भारतीय टीवी से प्रभावित था, ख़ासकर 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' और 'कहानी घर घर की'."
पेमराज सारदा कॉलेज की प्रोफ़ेसर माधुरी टीवी और फ़िल्म जगत पर क्रिटिकल टिप्पणियाँ भी लिखती हैं.
वह कहती हैं, "इन धारावाहिकों में औरतों के मुद्दों को बहुत सजा-संवारकर सतही तौर पर परोसा गया. आप देखिए टीवी सीरियल में औरतों को कितने समझौते करने पड़ते हैं. सीरियल का अंत भले कैसा भी हो, परिवार का पुरुष प्रधान सिस्टम जस का तस ही रहता है. इसलिए इन टीवी सीरियलों द्वारा औरतों के मुद्दों को उठाने का श्रेय लेना ठीक नहीं होगा."
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यहाँ हम एकता कपूर के बयान पर लौटते हैं कि इस शो ने भारतीय घरों में औरतों को एक नई आवाज़ दी.
अगर साल 2000 से पहले के हिंदी टीवी धारावाहिकों पर नज़र डालें तो 1985 में दूरदर्शन पर सीरियल 'रजनी' आया था जिसमें एक आम महिला (प्रिया तेंदुलकर) सरकारी महकमे के लचर और भ्रष्ट रवैये के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाली नागरिक बनती है.
साड़ी पहने और बड़ी सी बिंदी लगाने वाली 'रजनी' एक एपिसोड में एलपीजी सिलेंडर के दाम में ग़ैर-क़ानूनी बढ़ोतरी के ख़िलाफ़ डिलीवरी एजेंटों के विरोध में खड़ी हो जाती है.
इसका इतना असर हुआ था कि ऑल इंडिया एलपीजी डिस्ट्रीब्यूटर्स शो के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने आ गए थे.
साल 1989 में दूरदर्शन पर ही 'उड़ान' नाम का सीरियल आया था जो भारत की पहली महिला डीजीपी पर आधारित था.
90 के दशक में लोगों ने सीरियल शांति में मंदिरा बेदी को एक बेबाक, आज़ाद ख़याल महिला जर्नलिस्ट के रूप में देखा गया जो कामकाजी है, और अपने लिए लड़ना जानती है.
इसलिए यह कहना कि क्योंकि सास भी कभी बहू थी जैसे सीरियल पहली दफ़ा औरतों की आवाज़ बने यह पूरी तरह वाजिब नहीं लगता.
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वहीं कई समीक्षक और इंडस्ट्री के लोग इस सीरियल और एकता कपूर के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं.
रोहिणी निनावे टीवी इंडस्ट्री से जुड़ी हैं और पिछले 28 सालों से कई टीवी सीरियल लिख चुकी हैं.
उनका नज़रिया है, "मैं नहीं कहूँगी कि ये रिग्रेसिव कहानी थी. शो में कोशिश की गई थी कि औरतों को उनके हक़, अपने अस्तित्व का एहसास दिलाया जाए. उस वक़्त के हिसाब से सीरियल में बा से लेकर बहू तक के किरदारों को अच्छे से दिखाया गया था."
"यह वह वक़्त था जब औरतें अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हो रही थीं. लेकिन गाँव-कस्बों में औरतों की स्थिति अलग थी और है. औरतों को यही सिखाया जाता है कि बड़ों का आदर करो, घर का काम करो. औरतें रिश्तों में ही उलझी रहती हैं, तो सीरियल में भी यही दिखाया गया."
वहीं लेखिका लक्ष्मी यादव मानती हैं कि जो औरतें अपनी दहलीज़ लाँघकर अपनी नई पहचान बनाना चाहती थीं, उनको फिर से दहलीज़ के अंदर लाने का काम इस धारावाहिक ने अप्रत्यक्ष रूप से किया.
लक्ष्मी यादव के मुताबिक़, "परिवार भी यह सीरियल देखकर घर की औरतों से उसी निस्वार्थी रूप की परंपरावादी उम्मीदें रखने लगा. इस धारावाहिक ने भारत की औरतों को सिर्फ़ दो तरह की औरतों में बांटा, 'देवी' तुलसी और 'डायन' मंदिरा."
स्मृति इरानी भी लगातार आलोचनाओं को ख़ारिज करती रही हैं.
'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' की वापसी पर स्मृति इरानी ने सोशल मीडिया अकाउंट पर लिखा है, "इस शो ने भारतीय घरों में कई मुश्किल मुद्दों पर आवाज़ उठाई. जब मेनस्ट्रीम मीडिया में यह हिम्मत नहीं थी, उससे पहले इस शो ने जटिल सामाजिक सच्चाइयों से रूबरू करवाया."
'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' में एक प्लॉट मैरिटल रेप पर आधारित था, जहाँ सास बन जाने पर तुलसी अपनी बहू के लिए लड़ती है, जो मैरिटल रेप का शिकार होती है.
इस सीरियल में बा यानी दादी को फ़ैशन डिज़ाइन स्कूल में जाते दिखाया गया है और 'एडल्ट लिटरेसी' जैसा मुद्दा दर्शाया है.
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स्मृति इरानी ने करण जौहर के साथ शो में एक और बात उठाई.
उन्होंने बताया कि इस धारावाहिक ने दूसरे मायनों में भी ग्लास सीलिंग की क्योंकि बतौर महिला किरदार उन्हें मेल लीड के मुक़ाबले ज़्यादा फ़ीस मिलने लगी जो नहीं होता था.
सोशल मीडिया पर नज़र डालें तो वहाँ भी ये बंटी हुई राय देखी जा सकती है.
सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर कुंदर राय लिखते हैं- "संभ्यता, संस्कृति और संस्कार की झलक लिए मेरी माँ की फ़ेवरिट तुलसी बहू आ रही है लेकर, हमारे घर अपना परिवार. माँ तो नहीं रही लेकिन पूरी दुनिया कर रही है इंतज़ार."
जेन ज़ी की कसौटी पर खरी उतरेंगी स्मृति इरानी?जब 'क्योंकि सास भी कभी बहू' 2000 में आया था तो थिएटर जाने के अलावा टीवी ही मनोरंजन का सबसे बड़ा ज़रिया था. ओटीटी, सोशल मीडिया नहीं था.
लोगों ने विदेशों का कॉन्टेंट बहुत नहीं देखा था. यह सीरियल परिवार को साथ लाकर बिठाने का भी एक माध्यम था.
लेकिन आज हर मेंबर अपनी पसंद के हिसाब से अपने कमरे में बैठकर मोबाइल पर कुछ भी देख सकता है. रिश्तों, शादी को लेकर जेन ज़ी की मान्यताएँ अलग हैं.
तुलसी बहू के हर पहलू, हर क़दम, हर त्याग, हर रस्मो रिवाज को आदर्श की तरह स्वीकार लेने वाली पीढ़ी से आगे, स्मृति इरानी अब 25 साल बाद जेन ज़ी की कसौटी पर खरा उतर पाएगी?
जब 2000 में एकता कपूर 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' लेकर आई थी, तो उस समय के पोस्ट लिबरलाइज़ेशन वाले भारत में बहुत से लोगों ने इसे एक नए प्रयोग के तौर पर देखा- किसी ने इस प्रयोग को सही माना और प्रोग्रेसिव माना और किसी ने दकियानूसी.
लेकिन कुछ नया और एक्सपेरिमेंटल लाने की बजाय जब 25 साल पहले के हिट सीरियल को ठोक पीटकर दोबारा परोसा जाए तो सवाल यह भी उठता है कि क्या टीवी और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री डिफ़ेंसिव मोड में चली गई, जहाँ कुछ नया करना या कहना रिस्की हो सकता है?
और परंपरा और पारिवारिक मूल्यों वाली बनी बनाई चाशनी रिस्क फ़्री है?
टीवी लेखिका रोहिणी निनावे मानती हैं, "यह शो बिज़नेस है और ऐसे पेंतरे आज़माने पड़ते हैं. हाँ अगर क्योंकि सास भी कभी बहू थी दोबारा आया है तो उसे कुछ नया नज़रिया लेकर आना चाहिए. औरतों को एहसास दिलाइए कि रिश्ते निभाओ लेकिन अपना अस्तित्व मत भूल जाओ. अगर ऐसा किया गया है तो दोबारा बनाने में कोई हर्ज़ नहीं है."
सवाल कई हैं, जवाब शायद 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' के और आने वाले एपिसोड ख़ुद देंगे.
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